वाराणसी। काशी, जो जीवन और मृत्यु के बीच की अनंत धारा का प्रतीक है, ने एक बार फिर अपने अद्भुत परंपरागत उत्सव का साक्षी बनाया। रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन मंगलवार को मोक्षस्थली मणिकर्णिका घाट पर चिता भस्म की होली का आयोजन हुआ, जो न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान था, बल्कि जीवन और मृत्यु के गहरे अर्थों को उजागर करने वाला दुर्लभ दृश्य भी था।
महाश्मशान घाट पर जहां एक ओर चिताएं जल रही थीं, वहीं दूसरी ओर शिव भक्त, नागा साधु, अघोरी और हजारों श्रद्धालु ‘हर-हर महादेव’ के जयघोष के साथ भक्ति में लीन थे। विशाल डमरुओं की गूंज के बीच चिता भस्म और अबीर से होली खेलने का यह नजारा जीवन और मृत्यु के मिलन का प्रतीक बन गया। ‘खेलें मसाने में होरी दिगंबर’ गीत पर थिरकते भक्तों ने इस अलौकिक परंपरा को जीवंत कर दिया, जिससे घाट का वातावरण आध्यात्मिक ऊर्जा से भर उठा।
इस अनोखी होली में भाग लेने के लिए श्रद्धालुओं और पर्यटकों की भारी भीड़ उमड़ पड़ी। जहां एक ओर घाट पर अंतिम संस्कार की चिताएं जल रही थीं, वहीं दूसरी ओर भक्तों का उत्साह ‘हर-हर महादेव’ के जयघोष के साथ नई ऊर्जा का संचार कर रहा था। यह परंपरा काशी के उस दार्शनिक संदेश को भी साकार करती है, जो मृत्यु को अंत नहीं, बल्कि एक नए प्रारंभ के रूप में देखता है।
काशी में यह मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ के गौने (विवाहोत्सव) में उनके पिशाच, भूत-प्रेत, औघड़, अघोरी और संन्यासी शामिल नहीं हो पाते। इसलिए बाबा अगले दिन मणिकर्णिका घाट पर अपने इन गणों के साथ चिता भस्म की होली खेलते हैं। यही पौराणिक मान्यता इस परंपरा का आधार है।
इस धार्मिक आयोजन से पहले मणिकर्णिका घाट स्थित बाबा महामशानेश्वर महादेव मंदिर में विशेष आरती की गई, जिसके बाद भक्तों ने चिता भस्म की होली खेली। शिव आराधना समिति के डॉ. मृदुल मिश्र के अनुसार, यह परंपरा दर्शाती है कि मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि शाश्वत अस्तित्व की ओर बढ़ने का एक नया चरण है।