कोलकाता: यह कहानी सिर्फ हिंसा की नहीं है—यह कहानी है उस दुर्दशा की, जो बंगाल के मुर्शिदाबाद से भागे सैकड़ों हिंदू परिवारों ने झेली। पहले दंगाइयों के हाथों अपमानित हुए, फिर उसी पीड़ा को और गहरा किया ममता सरकार की पुलिस ने।
जिन्हें चाहिए थी शरण, उन्हें मिली कैद
11 अप्रैल को जुमे की नमाज के बाद वक्फ अधिनियम में बदलाव के विरोध में प्रदर्शन हुआ—लेकिन जल्द ही यह एक पूर्व-नियोजित हिंसा में बदल गया। शमशेरगंज, धुलियान और सूती इलाके जल उठे। घर फूंके गए, दुकानें लूटी गईं, और महिलाएं भी नहीं बख्शी गईं। पुलिस बस देखती रही।
जान बचाकर भागे लोग भागीरथी नदी पार कर मालदा पहुंचे। परलालपुर हाई स्कूल में उन्हें पनाह मिली, लेकिन यह राहत कुछ ही घंटों में यातना में बदल गई। स्कूल, जो एक शरणस्थली बनना चाहिए था, पुलिस की निगरानी में एक डिटेंशन सेंटर में तब्दील हो गया।
जब इंसानियत की चीखें सुनाई दीं
कालियाचक के एसडीपीओ फैसल रज़ा की निगरानी में स्कूल में ठहरे लोगों को उनके परिवार से मिलने तक नहीं दिया गया। मां-बेटी, पति-पत्नी, बूढ़े माता-पिता—सभी को अलग कर दिया गया। खाना मिला, लेकिन ऐसा जिससे भूख भी रूठ जाए।
जब हिन्दुस्थान समाचार की टीम पहुंची, अंदर से सिसकियाँ सुनाई दीं। सुमोना (बदला हुआ नाम) ने रोते हुए कहा, “हमने दंगाइयों से जान बचाई थी, लेकिन पुलिस ने हमें कैद कर लिया है।”
जब वर्दी में मिला पक्षपात का चेहरा
सबसे चौंकाने वाला मोड़ तब आया जब मीडिया को भीतर जाने से रोका गया। आईपीएस फैसल रज़ा ने कोर्ट के आदेश का हवाला दिया—जो बाद में झूठ निकला। जब आदेश दिखाने को कहा गया, तो वह धमकी पर उतर आए। उनका बर्ताव ऐसा था, मानो वर्दी में कोई दबंग गली का बदमाश खड़ा हो।
एक पीड़ित तपन (बदला हुआ नाम) का सवाल सीधा था—“क्या सिर्फ हिंदू होना ही हमारा अपराध है?”
राज्यपाल, महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग भी हुए गवाह
18 और 19 अप्रैल को जब राज्यपाल सीवी आनंद बोस, महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग की टीमें कैंप में पहुंचीं, पीड़ितों ने खुलकर अपना दर्द साझा किया। नारेबाज़ी की, और बताया कैसे पुलिस ने उन्हें धमकाया, परिवार से अलग किया और जबरन वापसी के लिए मजबूर किया।
डीएम-एसपी की चुप्पी, मीडिया की कोशिशें
मालदा के डीएम और एसपी को कई बार संपर्क किया गया, लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया। कई अधिकारियों ने फैसल रज़ा का नाम लेकर फोन उठाना बंद कर दिया। मीडिया को अंदर जाने से रोका गया, लेकिन स्थानीय युवाओं की मदद से सच्चाई बाहर आई।
सियासी तूफ़ान: भाजपा-कांग्रेस ने साधा निशाना
भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी ने इन कैंपों को “डिटेंशन सेंटर” कहा और आरोप लगाया कि सरकार ने इन बेकसूरों को जेल में डाल दिया है। कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी राज्य सरकार को जमकर घेरा और कहा कि दंगा पीड़ितों की मदद के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए।
सरकारी सफाई या सवालों से बचाव?
तृणमूल कांग्रेस और पुलिस ने सभी आरोपों को सिरे से खारिज किया, लेकिन एक सवाल अब भी हवा में तैर रहा है—क्या मासूमों की चीखें, भूखे बच्चों की सिसकियाँ और बुजुर्गों की बेबसी भी ‘राजनीतिक साजिश’ मानी जाएगी?