कोलकाता: पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में जब हिंसा भड़क उठी, तो एक मां की ममता ने डर और दर्द पर जीत दर्ज की। एक ऐसी मां, जो अभी प्रसव पीड़ा से उभरी भी नहीं थी, अपने महज़ सात दिन के नवजात को सीने से चिपकाकर अंधेरी रात में जान हथेली पर रखकर नदी पार कर गई – बस इसलिए कि उसका बच्चा जिंदा रह सके।
ये कहानी है सप्तमी मंडल की – एक नई मां, जिसकी ममता ने नफरत और खौफ के साए में भी उम्मीद की लौ जलाए रखी। मुर्शिदाबाद में हिंसक भीड़ ने जब हिंदू घरों को निशाना बनाना शुरू किया, तो सप्तमी का घर भी उस आग का शिकार बन गया जिसमें कई सपने और सुकून जलकर राख हो गए।
“अगर बीएसएफ पांच मिनट और देर कर देती, तो शायद मैं और मेरा बच्चा नहीं बचते,” – ये कहते वक्त सप्तमी की आंखों में वो रात आज भी ज़िंदा है। शनिवार, 12 अप्रैल की रात को उनके पड़ोसियों का घर जला दिया गया। फिर उनके घर पर पत्थरबाज़ी शुरू हुई। नवजात की तबीयत बिगड़ने लगी। तभी अचानक बीएसएफ पहुंची और वह अपने मां-बाप के साथ घर से भाग निकली।
वो कहती हैं, “मैंने अपने बच्चे को कंधे पर रखा, खुद को भगवान के हवाले किया और जैसे-तैसे नदी पार करके मालदा पहुंची। वहां एक अनजान गांव ने हमें रात बिताने की जगह, खाना और कपड़े दिए। अगले दिन हम परलालपुर हाई स्कूल में बने शरणार्थी शिविर में चले गए।”
जब अपने देश में ही शरणार्थी बनना पड़ा…
सप्तमी की मां महेश्वरी मंडल बताती हैं, “रात के अंधेरे में नाव से नदी पार की। दूसरी तरफ एक हिंदू परिवार ने हमें सहारा दिया, लेकिन अब हम दूसरों की दया पर हैं। सब कुछ पीछे छूट गया।”
सिर्फ सप्तमी नहीं, तुलोरानी मंडल, प्रतिमा, नमिता, मौसमी जैसी कई महिलाएं भी इन दंगों की पीड़िता बनीं। ये सभी स्कूलों में शरण लेने को मजबूर रहीं। इनका एक ही अनुरोध है – “हमारे गांवों में स्थायी बीएसएफ कैंप बनाया जाए, ताकि हम सुरक्षित घर लौट सकें।”
प्रशासन का दावा और ज़मीन पर हकीकत
प्रशासन की ओर से राहत शिविरों में खाने-पीने, महिलाओं व बच्चों के ज़रूरी सामानों का दावा किया गया, लेकिन पीड़ितों की मानें तो सच्चाई इससे कहीं अलग है। लोगों ने आरोप लगाया कि उन्हें स्कूलों में जबरन रोका गया, पुलिस ने धमकाया, घटिया खाना दिया गया, और अपने परिजनों से भी मिलने नहीं दिया गया।
मीडिया और अन्य लोगों की नज़र से असलियत को छिपाने के लिए कई परिवारों को वापस हिंसा-ग्रस्त मुर्शिदाबाद भेज दिया गया, जहां अब भी डर का साया मंडरा रहा है।
एक सवाल जो हर मां की आंखों में तैर रहा है…
सप्तमी और उसके जैसे सैकड़ों परिवार अब भी डरे हुए हैं। हर रात उन्हें यही डर सताता है कि अगर फिर हमला हुआ, तो कौन बचाएगा?
और उस सात दिन के बच्चे का क्या? जो इस देश में आंखें खोलते ही हिंसा का शिकार बन गया। जो अपनी मां के कांपते कंधों पर चिपक कर उस नदी को पार कर गया – जहां इंसानियत डूबती दिखी।