आर्बिट्रल प्रक्रिया न्यायिक तंत्र पर अतिरिक्त बोझ: उपराष्ट्रपति

नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शनिवार को कहा कि भारत में आर्बिट्रल प्रक्रिया न्यायिक तंत्र पर अतिरिक्त भार बन गई है। वे नई दिल्ली स्थित भारत मंडपम में इंडिया इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन सेंटर (IIAC) द्वारा आयोजित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि आर्बिट्रेटर की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी बार से जुड़े सदस्यों की। उन्होंने इस पर चिंता जताई कि आर्बिट्रल प्रक्रिया पर एक विशिष्ट वर्ग का अत्यधिक नियंत्रण है, जो न्यायिक शक्तियों से प्रभावित होता है।

उपराष्ट्रपति ने जोर देकर कहा कि आर्बिट्रेशन को पारंपरिक न्यायिक प्रक्रिया से अलग देखने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि दुनिया भर में इसे एक अलग दृष्टिकोण से आंका जाता है, लेकिन भारत में इसे संकीर्ण दृष्टि से देखा जाता रहा है।

उन्होंने कहा कि आर्बिट्रेशन में क्षेत्रीय विशेषज्ञों की भागीदारी आवश्यक है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश की एक टिप्पणी का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि यह प्रक्रिया “पुराने दोस्तों का क्लब” बनती जा रही है। हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि सेवानिवृत्त न्यायाधीश इस प्रक्रिया के लिए एक संपत्ति हैं और इससे विश्वसनीयता बढ़ती है।

धनखड़ ने संविधान के अनुच्छेद 136 के आर्बिट्रल प्रक्रिया पर प्रभाव की ओर भी ध्यान आकर्षित किया और कहा कि इस पर देश के अटॉर्नी जनरल को विचार करना चाहिए। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि कितने देशों में उच्चतम न्यायालय स्वत: संज्ञान लेता है।

भारत के वैश्विक स्तर पर उभरने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि मतभेदों का समाधान प्राथमिकता से किया जाए। उन्होंने सुझाव दिया कि विवादों को निपटाने के लिए वैकल्पिक समाधान और आपसी समझ को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

उपराष्ट्रपति ने यह भी कहा कि आर्थिक गतिविधियों में विवाद स्वाभाविक हैं, जिन्हें त्वरित समाधान की आवश्यकता होती है। कई बार मतभेद केवल धारणाओं के अंतर या अपर्याप्त समर्थन के कारण उत्पन्न होते हैं, इसलिए न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बनाने की जरूरत है।

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